Sunday, July 22, 2018

एक ख़त मंटो के नाम ...

मंटो...तुम मर क्यों नहीं जाते ! 

मुल्क की तक़सीम को सत्तर बरस गुज़र गए और तुम हो के अब भी बेशर्मो की तरह ज़िंदा हो | लोग सही कहते थे, तुम में ज़रा भी ग़ैरत नहीं ! जो होती तो मर न जाते बाकी हमनस्ल गैरतमन्दों की तरह, जो न मालूम शर्म से कब और कैसे मट्टी हो गए |

तुम्हारा मुल्क तो हिंदुस्तान था मंटो ! क्या अब भी है, और अगर है तो बताओ कहाँ है !
मुझे जो विरसे में मिला वह पाकिस्तान और भारत है | नहीं देखा मैंने तुम्हारा मुल्क हिंदुस्तान ! हाँ, तुम्हारी और तुम्हारी नस्ल की शया अच्छी-बुरी किताबों में पढ़ा ज़रूर है कि वक़्त के किसी दौर में एक ऐसा मुल्क भी हुआ था |

तुम तो रिफ्यूजी हो ना मंटो....न इधर के न उधर के !
न तुम्हे भारत क़बूल सका न पाकिस्तान ने ही तुम्हे इज़्ज़त बख़्शी | तुम्हारी तो खूब फ़ज़ीहत हुई बटवारें के बाद | बावजूद इसके तुम बेशर्मो की तरह कभी लकीर के इस जानिब तो कभी उस जानिब अपना मुस्तक़िल ठिकाना ढूंढते फिरते हो |

कभी सोचा है मंटो, तुम्हे घर कोई क्यों नहीं देता !
घर तो उनका होता है जो अपने और पराये के फ़र्क़ से बख़ूबी वाक़िफ़ हों | तुम्हे तो ये फ़र्क़ करना ही नहीं आया, तो फिर घर कहाँ से मिलता | तुमने तो उठाया क़लम और कर दिया बरहना - अपनों को भी और गैरों को भी | किसी का तो लिहाज़ किया होता मंटो ! अब तुम ही कहो ये बरहना लोग तुम्हे किस बिना पर अपने घरों में जगह दे दें या कोई घर ही मय्यसर कर दें | यूँ बेघर रहना ख़ुद तुमने अपनी तक़दीर में अपनी ही क़लम से लिखा था, लोगो का इसमें कोई कसूर नहीं |

तुमपर मुक़दमे होना तो लाज़िम था, मंटो !
वजह यह नहीं कि तुमने जिन्सी ताल्लुक़ात को बेपर्दा किया या तुम्हारे क़िरदार फ़ुहाश ज़बान थे | वजह थी कि तुमने इंसानी निज़ाम और मुआशरे दोनों को ही बेपर्दा किया | यहीं रुक जाते तो भी रहम था लेकिन उसके बाद तो हद ही कर दी ! तुमने इंसान की हैवान ज़हनियत की पक्की तस्वीर जो कच्ची क़लम से यूँ उकेरा कि मुआशरे के तमाम ख़ैरख़्वाह और हाफ़िज़ ख़ौफ़ज़दा हो पर्दादारी पर मजबूर हो गए | तुम्हे लाख समझाया, मगर तुम न माने - अहमकाना ज़िद पकड़कर जो बैठे थे !
आख़िर तुम्हे उन अदालतों में जाना पड़ा, जहाँ मुंसिफ़ भी वही थे और जो गुनहगार, लेकिन जुर्म तुम्हारा था | लिहाज़ा जुर्माना तुम्हे देना पड़ा | जानो-क़ैद से तो बच गए लेकिन इज़्ज़तो-वक़ार से गए | बदनामी की मुहर तुम्हरे नाम पर पुख़्ता कर दी गई ....सआदत हसन मंटो, एक हंगामा पसंद फ़ुहाश अफसानानिगार ! तुम्हारी इन तरक़्क़ियों को देखकर तरक़्कीपसंद तहरीक़ ने भी तुमसे किनारा लाज़िम पाया |

मंटो, तुम्हारा नाम तो सआदत है लेकिन ताज़ीम ज़रा भी नहीं तुममे !
सकीना की सलवार का इज़ारबंद खोलते तुम्हारा ज़ेहन नहीं काँपा ! तिथवाल के कुत्ते पर गोलियाँ चली तो तुम्हारा क़लम क्यों नहीं रुका ! ठन्डे गोश्त से ईश्वरसिंह की भूख को मारने के बाद तुमने क़लम क्यों नहीं तोड़ दिया ! घिन नहीं आई तुम्हे अपने क़लम से ? चलो बू तो आई होगी बू को लिखने के बाद या मुआशरे के साथ साथ तुम भी सड़ गए थे जो अपनी ही सड़ांध को पहचान न सके !

गुरेज़ नहीं के तुमने वही लिखा जो मुआशरे की शक्लो-सूरत थी और है | लेकिन यक बात बताओ, क्या हासिल हुआ ये दिलदोज़ अफ़साने लिखकर, मंटो !

जीते-जी न लोगो ने तुम्हे इज़्ज़त बख़्शी, न मुल्क ने ही नवाज़ा | हाँ, तुम्हारे फ़ौत होने के सत्तावन बरस बाद तुम्हे तमगा-ए-निशान-ए-इम्तिआज़ से नवाज़ा ज़रूर गया, लेकिन बेमानी !

जैसा तुम मुआशरे को 1955 में छोड़ गए थे हालात तो अब उससे भी बत्तर हो चले हैं | बेहतर होता जो तुम्हे नवाज़िश में तमगा न देकर लाहौर की हीरामंडी या बम्बई के कमाठीपुरा की किसी कदीम तवायफ़ के कोठे पर एक मजमा लगाते | जिसमे हाज़रीन को सस्ती बग़ैर बट की सिगरेट के साथ सस्ती शराब पेश की जाती, और जिसे पीने के बाद हाज़रीन तुम्हे दो-चार वैसी ही गन्दी गालियाँ देते जैसे तुम्हारे अफ़सानो के क़िरदार दिया करते हैं | तो यकीन जानो तुम बड़े खुश होकर ज़ोर का ठहाका लगाके शुक्रिया अदा करते और फरमाते कि ये हैं मेरे हमज़बान, ये हैं मेरे लोग |

अजीब बादाख़्वार थे तुम, मंटो !
बादाख़्वारी तुम्हे उतनी ही अज़ीज़ थी जितनी किसी सूफी दरवेश के लिए ख़ुदा की हम्दो-सना | गरज़ कि तुमने कभी कोई अफ़साना शराब की खुनकी में अंजाम नही दिया, हमेशा होशो-हवास की रहनुमाई में ज़ेहन से कागज़ पर उतारा | लेकिन अगर मैं कहूँ कि उन अफ़सानो के किरदार की तरबियत तुम्हारी बादाख़्वारी थी तो हरगिज़ गलत न होगा | कोई दो राय नही कि ज़रूर तुमने वो क़िरदार होशो-हवास में महसूस किए होंगे, लेकिन उनकी तरबियत तो तुमने बादाख़्वारी में की, ताकि जब तुम्हे फिर से होश आए तो तुम उन्हें अफ़सानो में उतार सको |

मंटो, उन क़िरदारों की ज़बान से निकले जुमले और सदायें आज भी सरहद के दोनों जानिब लावारिश गूँजते फिरते हैं - कभी दंगो की शक्ल में तो कभी हिन्दू-मुसलमान के फ़र्क़ में, कभी सियासतदानों की तक़रीर में, तो कभी मज़लूम के हश्र में, कभी फ़रियादी की फ़रियाद में, तो कभी क़ानून के अंधे तर्क में

रोज़ तुम्हारी कहानी के क़िरदार पैदा होते हैं और रोज़ मरते हैं | लेकिन उन्हें दफ़नाने या उनकी चिता को आग देने कोई नया मंटो पैदा नहीं होता | और हो भी क्यों ! तुम्हारे हश्र से बवाक़िफ़ हैं लोग !

पारसाई के धंधे में अगर तुम्हारे जैसी ज़िन्दगी का तस्सवुर हो तो कोई पारसाई क्यों करे, ठगी न करे ! और देखो मंटो, ठगी का धंधा करके इंसान तरक़्क़ियों के किस बुलंद मुकाम पर पहुँच गया है, जिसका तसव्वुर तुमने कभी अपनी पारसाई में न किया होगा |

अगर तुम आज ज़िंदा होते तो उसी बुलंद मुकाम से नीचे फेंक दिए जाते और तुम्हारी मौत की ख़बर किसी अख़बार, टीवी या रेडियो की सुर्खी भी न बनती | फ़र्ज़ करो, अगर बन भी जाती तो तुम्हारी मुर्दा शख़्सियत को इतनी भी इज़्ज़त न बख़्शी जाती जितनी गिद्द लाश को नोच खाने के बाद बख़्श देते हैं |
टीवी-अखबारों में मज़हब के ख़ैरख़्वाह और हाफ़िज़ न ही तुम्हे पूरी तरह जलने देते न ही दफ़्न होने | तुम्हारी वो गत करते कि न कोई तुम्हारे नाम का फ़ातिहा पढता न ही कोई तुम्हारा तेरवा होने देता | अच्छा हैं जो तब मर गए थे तुम, वरना जो इस ज़माने में आकर मरते तो अपनी मौत से ही घिन होने लगती - न ज़िन्दगी के हो सके थे, और न मौत के ही हो पाते तुम |

मौजूदा दानिश्वर तुम्हे बर-ए-सग़ीर का बेहतरीन अफ़सानानिगार करार देते हैं मंटो |
आज वो मुकाम हासिल है तुम्हे जिसे तुम अपने वक़्तों में मरकर भी हासिल न कर सके | तुम्हारे नाम पर नशिस्तें और मजलिसे होती हैं | तुम्हे पढ़कर लोग खुद को दानिश्वर कहते नही चूकते | अदाकार-अदाकाराएं तो अब भी तुम्हारे लिखे क़िरदार ज़ेब-ए-तन करते हैं | ग़नीमत है जो तुम एक फटेहाल-शराबी फर्द की मौत मरे, जो ज़रा इज़्ज़त की मौत मर न जाते तो तुम्हारी कब्र पर मज़ार तामीर होती और उसपर हर बरस उर्स | मुमकिन है चौराहों पर तुम्हारे मुजस्समे तामीर होते और तुम्हारे नाम से सड़कें बिछाई जाती |
लेकिन अफ़सोस ये कुछ भी न हो सका | तुम्हे पढ़ने वाले दो-चार मौजूद तो हैं लेकिन समझता कोई नही | किताबें शया करने वाले तुम्हारे अफ़सानो को मुख़्तलिफ़ सूरतों में शया करके पढ़ने वालों से वो-वो दाम वसूल रहे हैं कि तुम सुनोगे तो होश-फ़ाख्ता हो जाएंगे |

कहाँ तुम पाँच-दस रुपयों की ख़ातिर अफ़साना निगारी करते थे, और आज वही अफ़साने शया करके लोग तुम्हारे नाम पर पाँच रुपए का चंदा भी नही देते | अपनी मिलकियत, उन अफ़सानो को बड़े सस्ते दामों में बेच गए थे तुम, जिसके दम पर कोई खुद को दानिश्वर कहता हैं तो कोई चांदी काटता है |

मुझे तुम्हारे अफसानों के किरदारों की यतीमी पर रेहम आता है कि अब दर्द उनका सफ्हों में महदूद हो गया है | क़िताब के खुलने के साथ वो वजूद में आते हैं और बंद होते ही मिट जाते हैं | वो भूत हो गए हैं, मंटो ! अक्सर ख़्वाब में तख़्लीक़ होते हैं, मुझसे तुम्हारा पता पूछते हैं | अब तुम ही बताओ मैं उन्हें क्या जवाब दूँ !!!

Tuesday, May 16, 2017

वापसी...


कितना मुश्किल होता होगा लौट कर आना
शायद, उतना ही जितना पहली बार मिलना |
पैदाइश से होकर
एक उम्र से गुज़रकर
बेइंतहां झिझक और बेशुमार जुगत लगाकर
पहली मर्तबा मैं मिला था तुमसे,
हाथ मिलाने के बहाने छुआ था तुमको,
सच, ये कितना उम्दा रिवाज़ बनाया है किसी ने ।
.
.
.
अब महज़ इंतज़ार है -
एक और उम्र के गुज़रने का
फिर पैदाइश से होकर
उस उम्र तलक पहुचने का
और
तुमसे पहली मर्तबा मिलने का ।
हाँ, शायद इतना ही मुश्किल होता होगा लौट कर आना रूही !!!

Saturday, April 8, 2017

सस्सी ... पहली मुलाक़ात

हाँ प्रभात, मै दफ़्तर से निकल गई हूँ, तुम कहाँ हो?” टैक्सी में बैठते ही सस्सी ने प्रभात को फ़ोन किया |
“घर पर ही हूँ |”
“डिनर के लिए कहाँ चले?”
“अफगानी?”
“ठीक है.... फिर आधे घंटे में वहीँ मिलते है |”
“मै कोशिश करूंगा, लेकिन अगर ज़रा देर हो जाये तो तुम एतराज़...” प्रभात की बात सुने बग़ैर ही सस्सी ने फ़ोन रख दिया |
राज, जिसने एक कान से प्रभात की सस्सी से फ़ोन पर हो रही गुफ़्तगु सुनी तो ज़रूर थी लेकिन उसकी बेशतर तवज्जोह ऑस्ट्रेलिया बनाम भारत के क्रिकेट मैच के हाईलाइट में ज़ज़्ब थी जो भारत आखिर गेंद पर हार गया था | हर हिंदुस्तानी की तरह उसका भी दूसरा मज़हब क्रिकेट ही था | राज को डिनर के लिए बाहर चलने पर राज़ी करने के लिए प्रभात को खासी मशक्क़त करनी पड़ी थी | वो तो चाहता था कि खाना घर पर ही बुलवा लिया जाए जिसके प्रभात सख़्त ख़िलाफ़ था | राज इस शर्त पर जाने के लिए राज़ी हुआ कि दोनों भारत बनाम पाकिस्तान का मैच शुरू होने से पहले घर लौट आएंगे | कैसे किसी हिंदुस्तानी या पाकिस्तानी के लिए यह मुमकिन हो सकता हैं कि वो भारत और पाकिस्तान के दरमियान क्रिकेट के मुक़ाबले को टीवी पर न देखे जबकि वो मुक़ाबला तारीख़ में खासतौर पर दर्ज़ किया जाएगा, फिर अंजाम चाहे कुछ भी हो | हस्ब-ए-दस्तूर (उचित रीति से) शर्तों पर रज़ामंदी हासिल करने के बाद दोनों डीनर के लिए घर से बाहर निकल गए |
पार्किंग के बाहर गाडी रोकते हुए प्रभात ने राज से कहा था, “तू यहीं इंतज़ार कर, मै गाडी खड़ी कर के आता हूँ...” लेकिन इंसानी मिज़ाज़ का अनोखापन देखिये कि राज चाहकर भी वहाँ ज्यादा वक़्त खड़ा न रह सका और बेमंज़िल कदमो के सहारे सीधा रेस्तरां के दाख़िले पर पहुँचकर गेट की बायीं सिम्त जा खड़ा हुआ | दिल्ली मे सर्दियाँ अपनी आमद की दस्तक दे चुकी थी माहौल में ठण्ड घुली हुई थी जिसके एहसास ने राज को अपनी हथेलियाँ आपस मे रगड़ने और गहरी सांस लेने पर मजबूर किया था | इसके अलावा प्रभात के साथ मोटरसाइकिल की सवारी ने भी उसकी ठण्ड मे थोड़ा इज़ाफ़ा तो ज़रूर किया था | वहाँ प्रभात का इंतज़ार करते हुए उसके कानो को एक संगीत ने छुआ | किसी के मोबाइल फ़ोन की रिंगटोन थी शायद, लेकिन वैसी हरगिज़ नहीं लग रही थी | हैरतज़दा होकर उसने इर्द-गिर्द देखा तो उसकी नज़रे एक खूबसूरत चेहरे पर जा टिकी जिसके नीम गुलाबी रुखसारों को गेसु चूम रही थी और कानो मे इयरफ़ोन लगे थे जिसका तार उसके दायें हाथ की नाज़ुक मुट्ठी मे दाख़िल होकर आँखों से ओझल हो जाता था | वो गेट के दायीं सिम्त खड़ी थी और राज महज़ उसका आधा चेहरा देख पा रहा था | वो अपने मख़मली लबों से कोई गाना भी गुनगुना रही थी जो शायद इयरफ़ोन से उसके कानो पर पड़ रहा होगा |
यूँ महसूस होता था मानो यक़ीनन दोनों किसी बहते दरिया के ठहरे हुए दो मुख़्तलिफ़ किनारो पर खड़े है जैसे इक मर्तबा वीर और सस्सी मिले थे लाचेन और लाचुंग चु के संगम पर यूँ ही | वीर लाचेन के किनारे पर चहलक़दमी कर रहा था और सस्सी भूलकर यूनिवर्सिटी का रास्ता लाचुंग चु के किनारो के साथ बही चली जा रही थी | दरिया के बहाव मे ख्यालात से ज्यादा फसाद था | एहसासो को धड़कनो की आवाज़ पर काबू हासिल था | बादलो ने साज़िश करके सूरज छुपा दिया और धुंध ने मौका पाकर आलम गहरा दिया जैसा कुछ फिल्मो मे होता है | हवा भी सेहम गई और सब्ज़ जंगल ठहर गया, कि अब बारी खुद ख़ामोशी की थी गुफ़्तगु करने की | किनारो की सकरी पगडण्डी पर टेढ़े मेढ़े मोड़ो की गिरहें लगी थी जिनसे गुजरने के लिए अक्सर तजुर्बे और तवज्जोह दोनों ही की दरकार होती है | बहरहाल सस्सी का ताल्लुक़ दार्जिलिंग से था तो ऐसे रास्तो की गिरहें खोलना तो उसके खूँ में शामिल था और फिर वीर ने एक फ़ौज़ी होने की हैसियत से इस हुनर को हासिल किया था | यूँ ही चलते चलते दोनों ने एक दूसरे की आँखें थाम ली गोया झपकी तो यह तिलिस्म टूट जाएगा, यह ख़्वाब बिखर जायेगा और तक़दीर रुस्वा हो जाएगी | पूरे एहतियात के साथ छोटे छोटे क़दमों से वो आगे बड़े गोया कोई सुर्ख ग़ुलाब की पंखुड़ी मसलता हो | यक़ीनन नीम मुर्दा पत्तियाँ बिछी थी उनकी राह में जिन्हे शायद मगरूर हवा ने जुदा कर दिया था उन दरख़्तों से अब जिनके सायें में वो रौंदी भी जा रही थी क़दमों के तले | बेजोड़ किनारे कुछ जुड़ने लगे थे और एक तंग रस्सी के पुल ने आख़िरकार उन्हें जोड़ दिया | वीर ने पुल पर पहला कदम सस्सी के करीब जाने के लिए रखा, हालाँकि सस्सी के क़दम उस ग़ोशे पर ही थम गए जहाँ से उसके हिस्से का पुल शुरू होता था | मुस्कराहट चेहरे पर रौशन किये, बिना किसी जल्दबाज़ी के वीर उसकी ज़ानिब चलता रहा | मिलिट्री जैकेट के नीचे सादा लिबास में वो कोई और ही शख्सियत लग रहा था लेकिन उसके वज़नी पैरो के तले पुल की लकड़ी एक दर्द करहा रही थी कुछ मीठा सा जैसे सीने में इश्क़ चुबता हो |
“माफ़ कीजिये लेकिन आपका ...” राज ने आवाज़ लगाई लेकिन उसकी आवाज़ की बुलंदी इयरफ़ोन में सूराख न कर सकी | सस्सी कहीं ग़ुम थी और उसकी नज़रे कुछ तलाश कर रही थी सियाह आस्मां में जहाँ आज सितारों के निकलने की भी मनाही थी | राज ने आवाज़ को और बुलंद किया लेकिन फिर भी उसके तसव्वुर पर कोई असर नहीं हुआ मानो उसकी आवाज़ इयरफ़ोन के संगीत में घुल जा रही हो | इस सूरते हाल में राज के पास एक ही रास्ता बचता था कि वो खुद जान बूझ कर उसके कानो से इयरफ़ोन निकाल दे | उसकी इस नगवांरा हरक़त से सस्सी हक्का-बक्का रह गयी और फैली हुई आँखों से उसे देखने लगी लेकिन जब राज़ ने उसकी तवज्जोह का रुख बजते हुए फ़ोन की सिम्त किया तो उसे उसकी हरक़त कतई नगवांरा महसूस नहीं हुई |
मिलने के बावजूद उनकी आँखें कोई राब्ता न हासिल कर सकी | ज़ाहिर है, दोनों की आँखें मुख़ालिफ़(विपरीत) थी - राज की बचकानी, बिना किसी राज़ के, गोया सस्सी देख सकती थी उसका दिल उन शफ़ीक़ (स्नेहमय) मुस्कुराती आँखों में लेकिन सस्सी की गहरी आँखें राज़ और उलझनों का ताना-बाना थी जिसके पीछे कहीं एक मासूम दिल क़ैद में था | फ़क़त दो आँखों के सिवा राज कुछ न देख सका |
“हेलो?” सस्सी ने फ़ोन उठाया |
“क्या कर रही हो? कहाँ हो ? इतना वक़्त लगता है क्या फ़ोन उठाने में ?” दूसरी ओर से सवाल बरसे |
“अपने सवालात पर लगाम कसो और कहो तुम कहाँ पहुंचे...”
“मै पार्किंग मे गाडी खड़ी करके आ रहा हूँ...”
“ठीक है |”
'ठीक है' के साथ दोनों के फ़ोन काट दिया | इस दरमियान राज अपने इब्तेदाई ठोर पर लौट चुका था और मुस्कुराहट उसके रुख पर लुका छुपी खेलने लगी थी | बहरहाल सस्सी की नज़रें ज़मीन से जा लगी और चंद लम्हात में प्रभात भी वहाँ हाज़िर हो गया | राज को नज़रअंदाज़ करते हुए वो सीधा सस्सी से मिला | उसके चेहरे पर माफ़ी की अर्ज़ी लटकी थी हालाँकि सस्सी उसके देर से पहुँचने पर हरगिज़ नाराज़ न थी लेकिन मौका भी नहीं छोड़ सकती थी, “तुम थोड़ा जल्दी तशरीफ़ नहीं ला सकते थे?” और आख़िर उसने इलज़ाम दे ही दिया |
“तुम फ़ोन ज़रा जल्दी नहीं उठा सकती थी?” जवाबन भी इलज़ाम ही मिला |
राज को बुलाने के लिए प्रभात ने गरदन घुमाई तो नज़दीक आता राज यह सोच में था कि प्रभात से इस लड़की का क्या वास्ता है | और उसके इस ज़ेहनी सवाल का जवाब उस तआरुफ़ में छुपा था जो करीब पहुँचते ही प्रभात ने उसका सस्सी से करवाया |
“राज इनसे मिलो, ये है सस्सी मेरी दोस्त और सस्सी, ये है राज मेरे बचपन के दोस्त का छोटा भाई | हाल ही में पढ़ाई खत्म की है और अपनी ही कंपनी में नौकरी मिली है |”
मुतफ़क्किर(विचारवान) होने के बावज़ूद सस्सी ने अपना हाथ बिना किसी हिचकिचाहट के आगे बड़ा दिया, “आपसे मिलकर अच्छा लगा...”
“मुझे भी ... वैसे आपके फ़ोन की रिंगटोन लाज़वाब है गर आपको ऐतराज़ ना हो तो ...”
“जी शुक्रिया ...क्यों नही...”
अव्वल इसके की गुफ़्तगु अपने पैर वही पसार दे प्रभात बीच में कूद पड़ा, “मुझे यकीन है तुम दोनों के पास बहुत सी बातें होंगी एक दूसरे से करने के लिए, लेकिन पहले हम अंदर चलते है|”
"क्या ..." दोनों ने ताज्जुब से प्रभात को देखा |
"कुछ नहीं ...अंदर चलो...देखो कितने लोग जमा है आज यहाँ...टेबल मिलना तो मुश्क़िल है..." बोलता हुआ प्रभात फ़ौरन रेस्तराँ में घुस गया और फिसली हुई ज़बान संभाल ली | राज और सस्सी भी उसके पीछे रेस्तराँ में चले गए |
रेस्तरां के सुकून बख़्श माहौल में पकवानों की महक ज़ायके की लज़्ज़त को आहिस्ता - आहिस्ता परोस रही थी और माहौल की हल्की किरमिजी रौशनी सस्सी के शानो पर आरामदोज़ जुल्फों से गुज़रकर राज की आँखों में तिलिस्म पैदा कर रही थी | वहाँ काम करने वाले तमाम लोगो ने ख़ास पख़्तूनी लिबास ज़ेब-ए-तन(पहना) किया था और दीवारों पर चंद फूलों के साथ साथ पुर-अफ़साना (मशहूर) लीडरों के चेहरों की रंगसाज़ी थी | उस हल्की रौशनी में वो चेहरे ज़िंदा मालूम होते थे गोया अभी उठ खड़े होंगे अपनी - अपनी तकरीरों के साथ | हालाँकि उन्हें जंगो में शहादत हासिल किये एक अरसा गुज़र चुका था | पूरे दिल्ली में ये इकलौता ऐसा रेस्तरां था जो माहौल से, महक, ज़ायका और लिबास तक से मुकम्मल अफ़ग़ानी सिक़ाफ़त (संस्कृति) के तोर-ओ-तरीकों पर कायम था |
"खुशामदीद, आइये... आइये," एक पख़्तून तकरीबन छह फ़ीट की उचाई का रिवायती पख़्तूनी लिबास में आगे आया |
पख़्तून मैनेजर उन्हें टेबल मुहैया कराने के बाद हाथो में मेनू कार्ड थमा कर तनहा छोड़ गया | प्रभात ने पकवानों की फ़ेहरिस्त पर नज़रे डालनी शुरू की तो पसंदीदा ज़ाइको को देखकर उसकी आँखें चमक उठी | वहीँ राज ताज्जुब लबरेज़ आँखों से अब भी उन दीवारों को ताक रहा था जो अफ़ग़ानी इंक़लाब का किस्सा बयां कर रही थी | नतीज़तन उसकी सहाफत (पत्रकारिता) की समझ जाग उठी जिससे उसका राब्ता अपने ग्रेजुएशन के दिनों में हुआ था | राज ने अफ़ग़ानिस्तान और उसके बाशिंदों के मुतअल्लिक़ (बारे) बहुत इल्म हासिल किया था, लेकिन इतने करीब से महसूस करने का मौका आज तक नसीब नहीं हुआ था | 9/11 के बाद बहस में एक नया मौज़ूअ जुड़ गया था - चंद लोगो ने माना की अफ़ग़ानिस्तान पर चढाई करना जायज़ है और चंद ने इस चढाई के खिलाफ तकरीरें पेश की | यहाँ तक की तहरीरें भी की गयी | और चंद लोग ऐसे भी थे जो न इस तरफ थे बहस के न उस तरफ | उनका तो कहना था अमेरिका और रूस दोनों इस तबाही के लिए ज़िम्मेवार है | मोहम्मद रज़वी जो उस रेस्तरां का मालिक है अकसर अपना वो गाँव याद करता है जिसका नामो निशाँ बड़े से बड़े नक़्शे पर भी अब भी नहीं मिलता | उस ज़माने में वो सूखे मेवो का एक छोटा सा कारोबारी हुआ करता था जो बेहतरीन अफ़ग़ानी मेवा दिल्ली के कारोबारियों को भेजता था | जब रुसी अफ़ग़ान छोड़कर गए तो माहौल दुरुस्त होने के बजाय और बिगड़ गया, और कुछ ही वक़्त में तालिबान का कब्ज़ा पूरे मुल्क़ पर होने लगा | रिज़वी ने मुल्क़ छोड़ने का फैसला किया और अपने कारोबारी दोस्तों की मदद से हिंदुस्तान आ गया |
“तुम्हे दिल्ली कैसा लगा?” सस्सी की आवाज़ उसे सीधा काबुल से दिल्ली खीच लाई |
“अमृतर जैसा, बस पग्गा वाले सरदार थोड़े कम है यहाँ |” और सारी सियासत की काहिली हसी में कहीं फ़ना हो गई |
“वैसे सस्सी, आज का डिनर किसके नाम लिखना है?” प्रभात ने मज़ाकिया अंदाज़ में सवाल किया |
“कोई बात नहीं प्रभात, कर दो मेरे नाम लेकिन इसकी वसूली मैं तुम्हारे खाने के डिब्बो से पूरी करूंगी|”
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी, बहुत से बहुत प्रिया को अब दो चार रोटियां ज्यादा सेकनी पड़ेंगी मेरे डब्बे के लिए, तुम कर लेना वसूल |"
“तुम्हारे दफ़्तर शुरू करने की तारीख क्या है राज?” सस्सी ने फिर बातचीत का रुख राज की जानिब मोड़ दिया |
“कल”
“कहाँ रह रहे हो इन दिनों…” जैसे ही सस्सी ने यह सवाल दागा तो राज ने खुद की नज़रों से सस्सी को बेहिस कर दिया | अगरचे ज़रा सी पलकों में हरक़त भी गुस्ताख़ी का बाइस हो सकती थी |
“फ़िलहाल तो प्रभात भाईसाहब के यहाँ, जब तक की कोई मुस्तक़िल ठिकाना नहीं मिल जाता |”
“ये वेटर कहा रह गया, कोई हमारा ऑडर भी लेगा या नहीं?” एकाएक सस्सी बेहिसी को तोड़कर भागी गोया किसी ख्वाब से जागी हो | इस बीच प्रभात ने इशारे से नज़दीक ही मौजूद एक बैरे को बुला लिया |
बज़ाहिर सस्सी ने चंद लम्हात की मोहलत चुराई थी उस बातचीत से या कोई पुराना एहसास बेसाख़्ता ज़ेहन में दाख़िल हुआ था | दोनों ही सूरत में यह चुराया हुआ वक़्त काफ़ी था गुफ़्तगु का मौज़ूअ बदलने के लिहाज़ से | कभी कभार होश यूँ भी बेहोश हो जाते है |
“तुम कुछ कहो राज...”
“क्या...” उसने रस्मी तौर पर कहा | उसकी मुतासिर निग़ाह एक दीवार के दूसरी दीवार पर फलांग रही थी मसलन किसी का पीछा कर रही हों |
“कुछ भी, जो तुम्हारी तवज्जोह को इस टेबल पर रखे बजाय इसके कि वो पूरे रेस्तरां में घूमती फिरे, क्यों?”
“क्यों नहीं...”
“हम इंतज़ार में है की तुम कुछ अपने बारे कहो | अरे प्रभात तो पहले ही बहुत कुछ जानता होगा तुम्हारे बारे, एक काम करो सिर्फ मेरे लिए ही कुछ कहो |” प्रभात की समझ में नहीं आया कि सस्सी को हो क्या गया है | उसने सस्सी के मुह से इतनी मीठी मौसीक़ी तो कभी नहीं सुनी थी | सस्सी के बरताव में इतना रद्दोबदल हज़म करना फिलहाल उसके लिए मुश्किल था |
“हाँ राज, सस्सी को कुछ बताओ अपने बारे...” प्रभात ने चौंक कर कहा |
“वैसे प्रभात भाईसाहब ने तो बताया ही था कि मेरी पढ़ाई हाल ही में पूरी हुई है | हालाँकि एक बात है मैं ज़रूर बताना चाहूँगा जो भाईसाहब को भी शायद नहीं मालूम कि किसी ज़माने में मैं एक पत्रकार बनना चाहता था और ये जगह मुझे मेरे उन दिनों की याद दिलाती है |”
“वाह- एक पत्रकार | इसके अलावा...”
“इसके अलावा कुछ ख़ास नहीं - बस एक आम शख़्स जो क्रिकेट, मौसीक़ी, कितबो और घूमने का शौक रखता है |”
आम लोग वैसे पहली-पहली मुलाक़ात में कभी दिलचस्प नहीं लगते फिर भी न जाने क्यों सस्सी को राज आम नहीं कुछ ख़ास और दिलचस्प लगा था | उसने चाहा कि वो कुछ और जाने इस शख़्स के मुतअल्लिक़ लेकिन कैसे | बहरहाल, प्रभात गुफ़्तगु में फिर कूद पड़ा, “वैसे सस्सी अपना राज वॉयलिन अच्छा बजता है, क्यों राज?”
“ठीक ठाक बजा लेता हूँ, कुछ ख़ास नहीं |”
“दिलचस्प, जैसे मोहब्बतें फिल्म का 'राज आर्यन' | वैसे मैं ज़रूर सुनना चाहूँगी तुम्हे वॉयलिन बजता हुआ किसी रोज़|”
“ज़रूर, जब भी आपका दिल करे | वैसे आप किस चीज़ का शौक रखती हैं?”
सस्सी ने कभी किसी साज़ पर अपने हाथ नहीं रखे थे तो शौक कहाँ से रखती | लेकिन मुसव्विर (चित्रकार) हो जाना उसका शौक नहीं तक़दीर थी | किस्सा हॉस्टल के दिनों में शुरू हुआ था | उसे अब भी याद है कैसे कॉपियों के आख़िरी पन्नो पर वो पेंसिल से तस्वीरों की रंगसाज़ी किया करती थी, जिनके मानी हरेक की समझ से बाहर होते थे | वो फ़क़त रंगसाज़ी नहीं फलसफा बयां करने का तरीका था उसका | उम्र के साथ जिंदगी की गिरहें और उलझने लगीं और साथ ही उसका फलसफा भी | उसकी तसवीरें इंसानी दानिस्त की उलझनों का पुलिंदा थी जिनमे दरिया, कोहसार, झरने, बाग़-बाग़ीचे, सब्ज़ जंगल या खुशहाल चेहरे नहीं, दर्द और तन्हाई का क़िस्सा था | खुद से मुलाक़ात की शिद्दत का बयां और खुद के होने या ख़ुदा के न होने का सवाल | दुनिया के सारे मानूस रंगो में रंगी थी उसकी तसवीरें | एक अरसा बीता जब उँगलियाँ उसकी रंगो में डुबी हो और एहसास किया हो कनवास छूकर उस पर उतरने वाली तस्वीर का | मुद्दत हुई किसी फलसफे को तस्वीर की शक्ल दिए हुए |
“फिलॉसफी में यकीन रखते हो?” अनायास ही सस्सी पूछी बैठी|
“जितनी वॉयलिन से सीखी हैं सिर्फ उतना ही |”
“और वॉयलिन कितने वक़्त से हैं साथ तुम्हारे?”
“एक अरसा बीता |”
“काफ़ी होता हैं एक अरसा किसी भी फ़न के साथ फिलॉसफी का शागिर्द हो जाने के लिहाज़ से |”
जल्द ही खाना मेज़ पर सज गया और गरम-गरम खाने से उठती भाप और महक के साथ साथ गुफ़्तगु पर फिलॉसफी का कब्ज़ा होने लगा | दोनों अपने अपने ख़यालो से एक दूसरे को मुतासिर करने में लग गए | संजीदगी और गहरी उदासी सस्सी की फिलॉसफी का ख़ास हिस्सा थी | लेकिन राज संजीदगी और गहरी उदासी के पीछे छुपी कशिश और ख़ुशी को तवज्जोह देता था | ज्यादातर फिलोसोफेरो की तरह वो भी एक-दूसरे की इश्क़ की फिलॉसफी से रज़ामंद नहीं थे इसके बावज़ूद दोनों इस बात पर राज़ी हुए थे कि इश्क़ होता ज़रूर हैं | 700 करोड़ लोग इस मख्लूक़ का हिस्सा हैं और यहाँ 700 करोड़ किस्म का मुख्तलिफ़ इश्क़ मिलता हैं - आखिर इंसान राज़ी भी हो तो किस किस के इश्क़ से, हर लम्हा इक नया इश्क़ पैदा होता हैं इस ज़रख़ेज़ ज़मी पर |
मगर सवाल यहाँ कुछ और ही था - क्या इश्क़ उनपर मेहरबां होगा या फिर उनकी बदकिस्मती का बाइस बनकर रहभर जाएगा बाकि और लोगो की तरह | अनायास ही वीर की तस्वीर सस्सी के तसव्वुर से होकर गुज़री तो कई सवाल उठ खड़े हुए | उसे ज़ेहन में दफ़नाए इक अरसा गुज़र चुका था | ख़्वाब भी उसे कबका भूल चुके थे लेकिन यूँ अचानक तसव्वुर में लौट आना गोया कुछ कह रहा हो - आगे बड़ो और थाम लो | उसे वो सीमेंट की बेंच याद आ गई जिसके मुतअल्लिक़ सोचना वो कतई पसंद नहीं करती थी यहाँ तक की मुह फेर लिया करती थी जब भी किसी सीमेंट की बेंच को देखती | लिहाज़ा उसने बाग़-बाग़ीचे जाना भी छोड़ दिया था |
बहुत सी यादें जुडी थी उन बेंचो से - एक दफ़ा पहाड़ी रास्ते के किनारे ऐसी ही किसी बेंच पर सस्सी और वीर बैठे थे और काफ़ी ख़ामोश वक़्त गुज़र जाने के बाद वीर ने सस्सी से कहा - आगे बड़ो और थाम लो | उसे लगा वीर ने उसका दिल बीचो-बीच से चीर दिया है और लावा बह निकला | उस रोज़ वीर ने सस्सी की पलकों पर चमकते आंसूं देखे | उस रोज़ के बाद वो बेंच वीर के लिए इस दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह बन गई और उन दोनों की मुलाक़ात का ठिकाना भी | ड्यूटी के बाद वो अक्सर उस बेंच पर बैठा किताबें पढ़ता और जब भी दोनों को एक दूसरे से मिलने की चाहत होती तो वो उस बेंच पर आकर बैठ जाते | उन्होंने कभी कोई मुलाक़ात पहले से तय नहीं की थी | महज़ चाहत के चलते उम्मीद का दमन थामे वो बेंच पर आकर इंतज़ार किया करते | वो हरगिज़ इन यादों में नहीं लौटना चाहती थी, बावजूद इसके सब कुछ एक बार फिर से ज़ेहन में ताज़ा हो गया | हालाँकि, तमाम वक़्त राज की नज़रे सस्सी पर ठहरी थी बावजूद इसके वो कुछ ना देख सका, सिवाय उसकी खूबसूरती के |

Saturday, April 1, 2017

सस्सी...याद के झरोके से

तेज़ हवाएं जब बर्फाव का हाथ थामे फ़िज़ा में झूमती हैं, तो महज़ नीम-खुली आँखें ही कुछ देख पाने की कुव्वत रखती है और इस माहौल में अगर कुछ वक़्त के लिए हाथों को यूँ ही खुला छोड़ दिया जाए तो गोया वो भी एहसास के मानी खो बैठते हैं |
वह एक ऐसी ही यादगार शुमाल-मशरिक़ (उत्तर-पूर्व) की सर्दियों की शाम थी जहाँ एक छोटा सा क़स्बा हैं चुंगथांग, जो शुमाली सिक्कीम के दूर-दराज़ के इलाके में आबाद है | वहाँ कोहसारों की पेशानी पर रूहानी कोहरे आज भी बेलगाम मटरगश्ती करते फिरते हैं और इस फ़िज़ा में अगर होशो हवास के साथ कोई अपना दिल भी गवां बैठे तो ताज्जुब होगा | बहरहाल, वहीँ दूसरी जानिब वहाँ कीचड़ आलूद रास्ते भी हैं जो कहीं और नहीं बस उन जन्नती कोहसारों की धुन्ध तले आवारगी करते फिरते हैं | इन रास्तों की एक मुख्तलिफ़ ज़बान भी हैं - हिचकोलों और टकराव की - जिसे गाडी में बैठी सस्सी लम्बे वक़्त से बर्दाश्त कर रही थी |
जीप रफ़्तार की बांह थामे बढ़ी चली जा रही थी और ड्राइवर खुद को किसी पायलट के काम नहीं आंक रहा था | अपने ड्रिवरी के लम्बे तज़ुर्बे की बुनियाद पर, जिसे उसने ऐसे ही कोहसारों के दरमियान गाड़ियों की ड्रिवरी करके हासिल किया था, वो उस पुरानी जीप को हवादोज़ करने पर आमादा था | वहीँ पिछली सीट पर बालो की डोरियाँ हवा के साथ खेल रही थी | सस्सी ने हथेलियों को चेहरे पर ओढ़ रखा था और हरेक गहरी सांस के साथ वो अपने अंदर के धुएं को बाहर धकेल रही थी | उसे मालूम था कि ड्राइवर पीछे देखने वाले शीशे में से उसे देख रहा हैं और अपनी मुस्कराहट में खुदके ज़र्द दांतों की नुमाइश भी कर रहा हैं | लेकिन जो बात उसे सबसे ज्यादा परेशान कर रही थी वो उसके दांत नहीं बल्कि तेज़ बर्फ़ीली हवा थी |
"सुनो, ऐसा क्यों है कि इस जीप की खिड़कियों पर कोई भी शीशा नहीं है?" आख़िर सस्सी ने यह सवाल पूछ ही लिया | काफ़ी देर से पुरफ़िक्र (विचारवान) थी वो इस सवाल को लेकर |
"मेमसाब, इस खित्ते और रास्तों को देखो, आपको लगता है शीशे यहाँ ज्यादा रोज़ इन खिड़कियों पर टिक सकते हैं?" ड्राइवर ने पीछे देखने वाले कांच में सस्सी की शिकस्ता शक्ल को देखते हुए जवाबन कहा |
सस्सी अब ड्राइवर की ज़ानिब नहीं बल्कि खिड़की के बाहर देख रही थी | हथेलियाँ चेहरे से हटा ली थी उसने और अब सर्द हवाएं सीधे उसके रुखसार को चूम रही थी | ज़ाहिर है ऐसे में कुछ पुरानी यादें, ग़ालिबन बचपन की उसके ज़ेहन में भी गूंज उठी थी |

दार्जीलिंग ! क़रीब क़रीब 10 बरस गुजर चुके थे जब उसे घर से दूर हॉस्टल की जिंदगी जीने के लिये भेज दिया गया था | उम्र कुछ ख़ास नहीं यही कोई नौ-दस बरस की रही होगी लेकिन उस उम्र की यादें कुछ ख़ास हो गयी थी | चाय के बाग़ान जिनपर सूफी दरवेश की सी बेखुदी में रक्स करती हवाएं और वह बैठी इस दुनिया की सब ऊँची जगह - महंती बाबू के शानो पर - उफ़क़ तक फैली चाय की दुनिया को खुशी से निहारती गोया कोई जन्नत है वो |
तलहटी की बस्ती में एक तंग गली के नुक्कड़ की छोटी सी पंसारी की दुकान महंती बाबू की थी | उस वक़्त महंती बाबू यही कोई साठ-सत्तर बरस के बुज़ुर्ग रहे होंगे और वो कभी भी सस्सी को टिमटिमाते कागज़ में बंद लॉलीपॉप देना नहीं भूलते थे | जो हर दफ़ा पिछली दफ़ा से ज्यादा मीठी होती और बदले में नन्ही सस्सी एक मीठा बोसा महंती बाबू के झुर्रियों वाले गाल पर चिपका देती | महंती बाबू के लिए यह मीठा बोसा पूरे दिन की मिठास मुकम्मल कर देता, हालाँकि सुना है उन्हें शक्कर की बीमारी थी | जब भी वो गली में दाखिल होती तो एक हाथ को हवा में लहराती और दूसरे को कमर पर रखकर फुदकती तो महंती बाबू का मोटे शीशो वाला चश्मा उस नन्ही परी को पहचानने से कभी इनकार करता | वो हमेशा इक लॉलीपॉप से भरा मर्तबान फ़क़त सस्सी के लिए ही रखते थे और एक नाम भी दिया था उन्होंने सस्सी को - 'परी' - जिससे सिवाय उन दोनों के कोई और वाकिफ़ था | यह इक किस्म का राज़ था एक उम्रदराज़ और एक नौउम्र के बीच, मसलन ज़िन्दगी के दो बेजोड़ किनारे हों |
महंती बाबू ने कभी शादी नहीं की और तमाम उम्र इक ही छत के नीचे तनहा गुज़ार दी | जो दिन के वक़्त में पंसारी की दुकान होती और रात में रैनबसेरा | वो उस दुकान को हमेशा खुला रखते यहाँ तक की छुट्टी के रोज़ इतवार को भी | वो कहाँ से इस वादी में आए और कौन उनके मुलाकाती थे, कोई कुछ नहीं जानता था | शायद ही वो कभी अपनी दूकान से बाहर निकले होंगे, याद नहीं कब महंती बाबू को कभी किसी ने गली में देखा भी था | वो कौन थे इस बात की मालूमात किसी को नहीं थी | वो जिस क़िस्म के इंसान थे बमुश्किल ही किसी के तजस्सुस (जिज्ञासा) में उनका ख़्याल भी कभी शामिल रहा होगा | सिवाय सस्सी के किसी और की ज़िन्दगी में शायद ही उनका कभी कोई असर--रसूख़ (प्रभाव) रहा था | एक पोशीदा खामोश शख़्स जिसने तमाम ज़िन्दगी कुछ यूँ गुज़ार दी गोया खुद ख़ुदा भी भूल गया हो उसे इस मख्लूक़ को नवाज़ी हुई ज़िन्दगियों की गिन्ती में शामिल करना |
एक मर्तबा सस्सी के वालिद से उन्होंने कहा था, आपकी बेटी मेरे लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं है, बिना उसको देखे मेरे अंदर ज़िन्दगी ज़िंदा महसूस नहीं होती ... और एक बदकिस्मत रात वो बदा हुआ बीत गया |
नन्ही सस्सी के कन्धों पर बूढ़ी बोझिल परम्परा लाद दी गई - उसे वादी छोड़कर हॉस्टल की ज़िन्दगी जीने के लिए कही दूर किसी बोर्डिंग स्कूल में भेज दिया गया | अगली सुबुह, इस बात से बेखबर कि उनके लिए तो गुज़िश्ता रात ही वादी सूनी हो चुकी थी, महंती बाबू अपनी दुकान में बैठे सस्सी का गली में आने का इंतज़ार कर रहे थे | आज वो सस्सी के लिए लॉलीपॉप का एक नया मर्तबान खोलने वाले थे जो हाल ही में कलकत्ता से मँगवाया था | इंतज़ार करते करते सुबुह तीसरी पहर से जा लगी और हर गुज़रते लम्हे के साथ महंती बाबू के अंदर ज़िन्दगी की मियाद तंग होती गई | तीसरे पहर के खाने के साथ साथ चौथे पहर की चाय का भी ख़्याल उनके ज़ेहन से जाता रहा और सूरज जब पूरे दिन की मेहनत मसक्कत के बाद शाम को कोहसारो पीछे सुस्ताने के लिए आरामदोज़ हुआ तो महंती बाबू ने अपनी दुकान के बाहर कदम रखा और गली में चलने की कोशिश करने लगे |
कुछ वक़्त में गली को पीछे छोड़ वो एक छोटी सी पहाड़ी की जानिब हुए जहाँ सस्सी अपने वालिदैन के साथ रहती थी | जब पहाड़ी के ऊपर पहुंचे तो दालान में दाख़िल होने से पहले एक छोटे से काठ के दरवाज़े के सामने उनके कदम खुद खुद रुक गए | उस दरवाज़े की लकड़ी इतनी उम्रदराज़ थी कि गोया यक़ीनन एक और ज़िन्दगी की गुहार लगा रही हो बिलकुल बूढ़े महंती बाबू की तरह | चंद लम्हात के लिए वो उस दरवाज़े को घूरते रहे गोया कोई खुद की परछाईं को घूरता हो पानी की सतह पर | जब खोलने के लिए उसे छुआ तो एहसास हुआ कि पूरी ज़िन्दगी एक लम्हे के लम्स (छुअन) में सिमट आई है | लॉलीपॉप का मर्तबान जो दूसरे हाथ में थाम रखा था एकदम से ज़मीन पर गिरा | तिलिस्म टूट गया | वो उकड़ूँ बैठकर ज़मीन पर बिखरी तमाम लॉलीपॉप समेटने लगे और जल्द ही टूटते हुए मर्तबान की आवाज़ सुनकर सस्सी के वालिद भी बाहर दालान मे गये |
महंती जी ... आप ... इस वक़्त यहाँ क्या कर रहे हैं?
कुछ नहीं...कुछ नहीं...सिर्फ सस्सी को देखने आया था और यह कुछ नयी लॉलीपॉप भी लाया हूँ उसके लिए | ख़ास कलकत्ता से मंगवाई हैं .. समेटी हुई लॉलीपॉप हाथो में लिए महंती बाबू ने उनकी सिम्त बड़ी उम्मीद से देखकर जवाबन कहा था |
मायूस शक्ल लिए सस्सी के वालिद ख़ामोश खड़े थे | महंती बाबू ने अपनी बूढी आँखों से उनकी आँखें थाम ली और बिना पलक चपकाए उन्होंने तमाम लॉलीपॉप उनके हाथो में उड़ेल दी |
महंती जी, दरअसल सस्सी को कल रात उसे बोर्डिंग भेज दिया गया |
यह सुनकर महंती बाबू पर एक ख़ामोशी तारी हो गई और ज़बान ख़ुश्क लगने लगी | मुमकिन हैं वो इतनी दूर जो चलकर आये थे | आँखें भी ज़मींदोज़ थी ग़ालिबन पलकों को ठंडी हवा ने बोझिल कर दिया था |
पहली मर्तबा आप हमारे यहाँ तशरीफ़ लाये हैं, अंदर आइये ना | सस्सी के वालिद ने इसरार किया |
ज़मींदोज़ आँखों के साथ वो मुड़े और बुदबुदाते हुए वापस जाने लगे, ठीक हैं... ठीक हैं...दुकान खुली हैं ... खाना चुहले पर इंतज़ार कर रहा हैं ...बहुत देर हो गयी हैं ...दुकान खुली हैं ... खाना चुहले पर इंतज़ार कर रहा हैं ...बहुत देर हो गयी हैं ... और पीछे छोड़ गए सस्सी के हैरानकुन वालिद को जो अब भी हाथो की ओक में लॉलीपॉप थामे महंती बाबू को जाता हुआ देख रहे थे |
महंती बाबू पहाड़ से नीचे बस्ती की ज़ानिब चलने को हुए तो कहीं खो गए - मालूम रात की तारीकी में या ख़्याल की तारीकी में - लेकिन एक बात तो तय थी, वो रात बड़ी सियाह थी | अगली सुबुह जब सस्सी के वालिद बस्ती में हाज़िर हुए तो महंती बाबू की दुकान को सूना पाया | कुछ वक़्त वही इंतज़ार करने के बाद जब लोगो से पूछताछ की तब भी कोई मालूमात हासिल हुई | किसी ने उन्हें गुज़िश्ता शाम के बाद नहीं देखा था, और इस बात ने उनके ज़ेहन में किसी ख़लल की पैदाइश भी नहीं की थी | ज़ाहिर है, महंती बाबू उस रात की सियाही में कहीं ग़र्क हो गए थे या फिर ख़्यालात के तूफ़ान ने उन्हें इजाज़त ही नहीं दी लौटने की | महंती बाबू फिर कभी मुड़कर अपनी छोटी सी दुकान पर नहीं आए और ही उनकी कोई खबर आई - अच्छी या बुरी |
जब यह खबर सस्सी के कानो में पड़ी तो उसने एक कसम की शक़्ल इख्तियार कर ली जिसके मुताबिक वो अब कभी दार्जिलिंग वापस नहीं जाएगी | ग़ालिबन वो उस बूढ़े लॉलीपॉप देने वाले को अपनी समझ और उम्र दोनों से कहीं  बढ़कर चाहती थी |
बहरहाल, यादें तो टाइम-मशीन की तरह होती हैं - ले जाती है माज़ी में और गुज़िश्ता वक़्त कुछ यूँ महसूस होता है गोया उसे हम हाथ बढ़ा कर थाम सकते हैं | और फिर एक झटका महसूस होता हैं, वक़्त हाथ से छूट जाता हैं, हम वापस लौट आते हैं...जैसे हम कभी कहीं गए ही नहीं थेबस एक ख्वाब था बंद आँखों वाला जिसका तसव्वुर आँखें खोलकर कर किया था |
कुछ ऐसा ही महसूस हुआ था सस्सी को जब ड्राइवर ने अपना पैर पूरे ज़ोर से ब्रेक पर रखा और जीप एक बड़े से लोहे के गेट के सामने झटके के साथ अपनी ही जगह पर खड़ी हो गई | वो चुंगथांग विश्वविद्यालय पहुंच गई थी जो ख़ासा मशहूर नहीं था फिर भी सस्सी ने उसे चुना था | शायद वो दार्जिलिंग को चुंगथांग की वादी में महसूस करना चाहती थी | विश्वविद्यालय की वसीह इमारत के आगे मिट चुके नवाबों के महल भी छोटे मालूम होते थे | सस्सी ने पहले कभी ऐसी रोबदार इमारत नहीं देखी थी जिसके हर ज़ानिब कोहसार हो और उनपर हर वक़्त धुंध तारी रहती हो | उसने ड्राइवर को यह कहते हुए सुना था कि इन कोहसारो की धुंध हज़ारो साल पुरानी हैं |
बेरहम सर्द और हसीन माहौल की आड़ में चुंगथांग ने यकीन के परे चंद हैरतमन्द तोहफे और एक नयी ज़िन्दगी छुपा कर रखी थी और इंतज़ार में थी सस्सी के की कब वो अपना पहला कदम गेट के अंदर रखे | इधर उसने कदम रखा और उधर कीचड़ में सना एक फूटबाल उड़ता हुआ सीधा उसके चेहरे से जा चिपका | ऐसा इस्तकबाल तो उसने अपने किसी ख़्वाब में भी नहीं सोचा था | अगले ही पल उसने खुद को ज़मीन पर सपाट महसूस किया और हैरत ने उसके जेहन से सारे ख़्यालात फ़ना कर दिए | उसके लिए एकदम से पूरी दुनिया सिफ़र- ज़ज्ब (शुन्य में सामना) हो गयी और खुली आँखें आसमान का नीला रंग पहचानने के इंकार करने लगी | फूटबाल इस्तकबाल का बोसा और कीचड़ के निशाँ उसके रुखसार पर पीछे छोड़ने के बाद खेल में वापस लौट गया था | ज़मीन पर लेटे - लेटे उसे गुज़रती हुई हवा के बैन सुनाई दे रहे थे और उन लड़को का शोर भी जो फूटबाल के लौटते ही फिर खेल में मसरूफ़ हो गए थे बिना किसी का ख़्याल किये | अभी तो होश ने आना शुरू किया ही था कि एक भारी आवाज़ उसके कानो में गूंजी तो पलकें हरकत में गई गोया टूटा हुआ राब्ता फिर से जुड़ गया हो | उस आवाज़ ने मदद के लिए एक हाथ आगे बढ़ाया जिसे थाम कर सस्सी अपने पैरो पर फिर से खड़ी हो गई |
"आप ठीक तो हैं, चोट तो नही लगी?
उसने उस चेहरे को देखा जहाँ से वो भारी आवाज़ रहीं थी | छह फुट का शख़्स तक़रीबन पूरा ही मिट्ठी और कीचड़ में सना  हुआ यहाँ तक की उसकी जिल्द का रंग - गोरा, कला या गेहुँआ - कह पाना भी मुश्किल था लेकिन ढीली टी-शर्ट के बावजूद उसके गठीले बदन की बनावट साफ़ नुमाया होती थी |
उस अजनबी की सब्ज़ आँखें नश्तर बनके सस्सी के दिल को गहराईयों तक ज़ख्म दे रही थी और उसकी आवाज़ उन ज़ख्मो पर तपता लोहा उड़ेल रही थी | उन ख़ास लम्हात में खुद के एहसासात उसकी समझ से परे थे | गोया इक किस्म का डर है जिसमे दिल बैठा नहीं है, एक किस्म का जोशों-ख़रोश है जिसमे उमंग नही है, एक किस्म की उल्फ़त है जिसमे हिचकिचाहट नहीं है, एक किस्म का गुस्सा है जिसमे नाराज़गी नहीं है, एक किस्म की चिढ़ है जिसमे झुंझलाहट नहीं है |
यूँ महसूस होता था कि कोई पर की कलम से कुछ गोद रहा हो उसके दिल पर और हर लफ्ज़ के बाद चुभा भर देता है उसे कुछ यूँ कि फिर दिल बस तड़पकर रह भर जाता है | उन लम्हे मे दिलो दिमाग सुन्न और जिस्म अकड़ गया था और लम्हा एक सदी से लम्बा महसूस हो रहा था |
"मैं ठीक हूँ बस मेरा सामान..."
"लगता है आप ठीक नहीं है."  अजनबी ने उसे बीच में रोका |
"नहीं...वो मेरा सामान..." सस्सी ने टूटती हुई आवाज़ में कहा और दोनों बिखरे पड़े अटैची और बैग की ज़ानिब देखने लगे | अपना सा मुँह खोले ज़मीन पर खुली पड़ी अटैची ने उसकी छोटी सी दुनिया को अजनबी के सामने बेपर्दा कर दिया था | एक मासूम सा टेडी बेयर जो शायद उसकी तन्हाई का इकलौता साथी था | एक बिना जिल्द और नाम की किताब जो उसके दिल के बेहद करीब थी | चंद लिबास यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े | एक खाली फोटो फ्रेम जो मुन्तज़िर थी एक मुकम्मल तस्वीर की | एक डायरी जिसके मानी उसमे दर्ज़ अलफ़ाज़ से भी कहीं आगे निकल चुके थे | एक पेन भी था जो उसकी नाज़ुक उँगलियों ने मालूम कितनी मर्तबा पकड़ा था अपने ज़ेहन को उस डायरी के कोरे सफ़्हों पर उतरने के लिए गोया कोई मुसव्विर(चित्रकार) एहसासात को कैनवास पर उतरता हो |
शरारती हवा उस डायरी के सफ़्हों को कभी इस ज़ानिब तो कभी उस ज़ानिब उड़ाए जा रही थी गोया मख़ौल कर रही हो उसका और हस रही हो सस्सी के नाहमवार(असंतुलित) ख़्यालात और ज़िन्दगी पर |
अज़नबी अपने पंजो पर बैठकर उसके सामान को बटोरने लगा और सस्सी उसे महज़ निहारती रही | उसके गंदले हाथो ने जिस भी चीज़ को छुआ उस पर खुद की एक छाप छोड़ दी और कुछ वक़्त में यूँ लगा मानो उसने अपनी छाप सस्सी के वजूद पर भी रख छोड़ी थी | कुछ देर बाद अटैची और बैग दोनों ही तैयार थे | अज़नबी ने उन्हें उठाया और सस्सी के पीछे चलने लगा लेकिन इमारत में दाख़िल होने से पहले वो रुक गया, " मैं इस इमारत में दाख़िल हो सकता..."
"शुक्रिया मदद के लिए, मैं यहाँ से खुद चली जाऊँगी…" सस्सी ने मुड़कर जवाबन कहा |
"नहीं, वाकई मैं आपका सामान आपके कमरे तक सही सलामत पहुँचाना चाहता हूँ लेकिन मैं कोई छात्र नहीं हूँ इसलिए यहाँ से आगे नहीं जा सकता|"
"वाकई, तो फिर..." हैरान नज़रों से उसने पूछा |
"माफ़ कीजिये, मैंने अपना तआरुफ़ नहीं करवाया | मेरा नाम वीर ही, कप्तान वीर | मैं यहीं पास के मिलिट्री कैंप से हूँ | कभी कभार यहाँ फुटबॉल खेलने जाता हूँ यहाँ की टीम अच्छा खेलती हैं |”
"आप से मिलकर अच्छा लगा कप्तान |"
"मुझे भी और ...." वीर की आवाज़ अटक सी गयी 'और' पर लेकिन सस्सी ने थाम लिया |
"ओह, मेरा नाम सस्सी हैं और मैं सिर्फ सस्सी हूँ...” और एक चहक उसके लबों से फुट निकली |
वैसे जो हुआ मैं उसके लिए मुआफ़ी चाहता हूँ | दरअसल वो मेरी गलती थी, मैंने गलत ज़ानिब बॉल को किक किया था |"
लेकिन सस्सी बिना कुछ कहे सामान के साथ इमारत में दाख़िल हो गयी और वीर सिवाय देखने के कुछ और कर सका | उसकी शर्मिंदगी पहले से और भी ज्यादा बढ़ गयी थी |